दस महाविद्याओं में से दूसरी महाविद्या मां तारा,मंत्र,स्तोत्र,कवच,ध्यान,Das Mahaavidyaon Mein Se Doosaree Mahaavidya Maa Taara,Mantr,Stotr,Kavach,Dhyaan

Das Mahaavidya:-दस महाविद्याओं में से दूसरी महाविद्या मां तारा,मंत्र,स्तोत्र,कवच,ध्यान

हिंदू धर्म में, दस महाविद्याओं में से दूसरी महाविद्या मां तारा हैं. तारा देवी को पार्वती का तांत्रिक रूप माना जाता है. उनका नाम 'तारने वाली' या 'पार कराने वाली' के अर्थ से आया है. तारा देवी को नादम (ध्वनि) की अभिव्यक्ति माना जाता है और नाद योग का स्रोत भी माना जाता है. वह बृहस्पति की पत्नी थीं और देवताओं के गुरु बृहस्पति की अधिष्ठात्री देवी हैं
जब काली ने नीला रूप ग्रहण किया तो वह तारा कहलाई। यह देवी तारक है अर्थात् मोक्ष देती हैं। अतः इन्हें तारा कहते हैं। उपासना करने पर यह देवी वाक्य सिद्धि प्रदान करती है, अतः इन्हें नील- सरस्वती भी कहते हैं। यह भी मान्यता है कि हयग्रीव का वध करने के लिये देवी ने नीला विग्रह ग्रहण किया था। यह शीघ्र प्रभावी हैं अतः इन्हें उग्रा भी कहते हैं। उग्र होने के कारण इन्हें उग्रतारा भी कहा जाता है। भयानक से भयानक संकटादि में भी अपने साधक को यह देवी सुरक्षित रखती है अतः इन्हें उग्रतारिणी भी कहते हैं। कालिका को भी उग्रतारा कहा जाता है। इनका उग्रचण्डा तथा उग्रतारा स्वरूप देवी का ही स्वरूप है। तारा रूपी द्वितीय महाविद्या अपने साधकों पर अत्यधिक शीघ्रता से प्रसन्न होकर एक ही रात्रि में दर्शन भी दिया करती हैं। इनका भव्य श्रीविग्रह भारत में जालन्धर पीठ के कांगड़ा नामक स्थान पर 'वज्रेश्वरी देवी' के नाम से शोभायमान है।

Das Mahaavidyaon Mein Se Doosaree Mahaavidya Maa Taara,Mantr,Stotr,

तारामंत्र

भगवती तारा के आजकल तीन मन्त्र विशेष प्रचलन में हैं जो कि निम्नलिखित हैं -
  1. ह्रीं स्त्रीं हूं फट् ।
  2. श्रीं ह्रीं स्त्रीं हूं फट् ।
  3. ॐ ह्रीं स्त्रीं हूं फट् ॥
ऊपर तीन प्रकार के मन्त्र कहे गए हैं, साधक अपनी सुविधा के अनुसार इनमें से चाहे जिस मन्त्र के जप से उपासना कर सकता है।

ताराध्यान-

प्रत्यालीढपदां घोरां मुण्डमालाविभूषिताम् । 
खाँ लम्बोदरीं भीमां व्याघ्घ्रचर्मावृत्तां कटौ ॥ 
नवयौवनसम्पन्नां पञ्चमुद्राविभूषिताम् । 
चतुर्भुजां लोलजिह्वां महाभीमां वरप्रदाम् ॥
खंगकर्तृसमायुक्तसव्येतरभुजद्वयाम् !
कपोलोत्पलसंयुक्तसव्यपाणियुगान्विताम् !!
पिंगाग्रैकजटां ध्यायेन्मौलावक्षोभ्यभूषिताम्।
बालार्कमण्डलाकारलोचन भूषिताम् ॥
ज्वलच्चितामध्यगतां  घोरदंष्ट्राकरालिनीम् ।
विश्वव्यापकतोयान्तः श्वेतपद्मोपरिं स्थिताम् ॥ 

तारा देवी एक पाँव आगे किये वीर पद से विराजित है। यह घोररूपिणी है व मुण्डमाला से विभूषित है, सर्वा है, लम्बोदरी है. भीमा है, व्याघ्रचर्म पहिनने वाली है, नवयुवती है, पंचमुद्रा विभूषित है, चतुर्भुजा है। इनकी  भी है। इनके दक्षिण दोनों हाथों में खंग और कभीमा तथा वाम दोनों हाथों में कपाल और उत्पल विद्यमान है। इनकी जटा पिंगलवर्ण की है, तीनों नेत्रों में तरुण सूर्य के समान रक्त वर्ण हैं। यह जलती हुई चिता में स्थित है, घोर दंष्ट्रा है, कराला है, स्वीय आवेश सी हास्यमुखी है। यह सब प्रकार केअलंकारों से अलंकृत है एवं यह विश्व व्यापिनी जल के भीतर श्वेत पद्म पर स्थित हैं।

तारा-स्तोत्र

तारा च तारिणी देवी नागमुण्डविभूषिता । 
ललज्जिह्वा नीलवर्णा ब्रह्मरूपधरा तथा ॥ 
नामाष्टक मिदं स्तोत्रं य पठेत् शृणुयादपि । 
तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्यात् सत्यं सत्यं महेश्वरि ॥

तारा, तारिणी, नागमुण्डों से विभूषित, चलायमान जिह्वा वाली, नील वर्ण वाली, ब्रह्म रूपधारिणी है। यह नागों से अंचित कटी और नीलाम्बर धरा है। यह अष्टनामात्मक ताराष्टक स्तोत्र का पाठ अथवा श्रवण करने से सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त होती है।

तारा-कवच

  • भैरव उवाच

दिव्यं हि कवचं देवि तारायाः सर्व्वकामदम् । 
शृणुष्व परमं तत्तु तव स्नेहात् प्रकाशितम् । 

भैरव ने कहा हे देवी! तारा देवी का दिव्य कवच सर्वकामप्रद और परम श्रेष्ठ है। तुम्हारे प्रति स्नेह के कारण ही उसको कहता हूँ।

अक्षोभ्य ऋषिरित्यस्य छन्दस्त्रिष्टुबुदाहृतम् । 
तारा भगवती देवी मंत्रसिद्धौ प्रकीर्त्तितम् ।।

इस कवच के ऋषि अक्षोभ्य, छंद, त्रिष्टुप्, देवता भगवती तारा और मन्त्र सिद्धि के निमित्त इसका विनियोग है।

ओंकारो मे शिरः पातु ब्रह्मरूपा महेश्वरी ।
हीड्ङ्कारः पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी ॥
स्त्रीङ्कारः पातु वदने लज्जारूपा महेश्वरी। 
हुड्कार पातु हृदये तारिणी शक्तिरूपधृक् ॥

ओ३म् ब्रह्म रूपा महेश्वरी मेरे मस्तक की, हीं बीज रूपा महेश्वरी मेरे ललाट की, स्त्री लज्जा रूपा महेस्सरी मेरे मुख की और हुँ शक्ति रूप धारिणी तारिणी मेरे हृदय की रक्षा करें।

फट्कारः पातु सर्वांगे सर्वसिद्धि फलप्रदा।
खर्वा मां पातु देवेशी गण्डयुग्मे भयापहा ॥
लम्बोदरी सदा स्कन्धयुग्मे पातु महेश्वरी।
व्याघ्न चर्मावृता कठिं पातु देवी शिवप्रिया ।।

फट् सर्वसिद्धि फलप्रदा सर्वांगस्वरूपिणी भयनाशिनी खर्वादेवी मेरे दोनों कानों की, महेश्वरी लम्बोदरी देवी मेरे दोनों कंधे की और व्याघ्रचर्मावृता शिवप्रिया मेरी कमर की रक्षा करें।

पीनोन्नतस्तनी पातु पार्श्वयुग्मे महेश्वरी।
रक्तवर्तुलनेत्रा च कटिदेशे सदावतु ॥
ललज्जिह्वा सदा पातु नाभौ मां भुवनेश्वरी ।
करालास्या सदा पातु लिंग देवी हरप्रिया ॥

पीनोन्नतस्तनी महेश्वरी मेरे दोनों पार्श्व की, रक्त गोल नेत्र वाली मेरी कटि की, ललजिह्वा भुवनेश्वरी मेरी नाभि की और कराल वदना हरप्रिया मेरे लिंग की सदा रक्षा करें।

विवादे कलहे चैव अग्नौ च रणमध्यतः । 
सर्व्वदा पातु मां देवी झिण्टीरूपा वृकोदरी ।।

झिण्टी रूपा वृकोदरी देवी विवाद एवं कलह में, अग्नि मध्य और रण में सदा मेरी रक्षा करें।

सर्व्वदा पातु मां देवी स्वर्गे मत्त्र्ये रसातले ।
सर्वास्त्रभूषिता देवी सर्व्वदेवप्रपूजिता ॥
क्रीं क्रीं हुं हुं फट् २ पाहि पाहि समन्ततः ॥

सब देवताओं से पूजित सर्वास्त्र से विभूषित महादेवी मेरी स्वर्ग लोक, मर्त्य लोक और रसातल लोक में मेरी रक्षा करें। 'क्रीं क्रीं हुं हुं फट् फट्' बीज मन्त्र मेरी सब तरफ से रक्षा करें।

कराला घोरदशना भीमनेत्रा वृकोदरी।
अट्टहासा महाभागा विघूर्णितत्रिलोचना।
लम्बोदरी जगद्धात्री डाकिनी योगिनीयुता । 
लज्जारूपा योनिरूपा विकटा देवपूजिता ॥ 
पातु मां चण्डी मातंगी ह्यग्रचण्डा महेश्वरी ॥

महाकराल घोर दाँतों वाली भयंकर नेत्र और भेड़िये के समान उदर वाली, जोर से हँसने वाली, महाभाग वाली, घूर्णित नेत्र वाली, लम्बायमान उदर वाली, जगत् की माता, डाकिनी योगिनियों से युक्त,लज्जारूप, योनिरूप, विकट तथा देवताओं से पूजित, उग्रचण्डा, महेश्वरी मातंगी मेरी सर्वदा रक्षा करें।

जले स्थले चान्तरिक्षे तथा च शत्रुमध्यतः । 
सर्व्वतः पातु मां देवी खड्गहस्ता जयप्रदा ।।

खंग हाथ में लिये जय देने वाली देवी मेरी जल में, स्थल में, शून्य में; शत्रु मध्य में और अन्यान्य सब स्थानों में मेरी रक्षा करें।

कवचं प्रपठेद्यस्तु धारयेच्छृणुयादपि । 
न विद्यते भयं तस्य त्रिषु लोकेषु पार्व्वति ॥ 

जो साधक इस कवच का पाठ करते हैं या धारण करते हैं या सुनते हैं, हे पार्वती ! तीनों लोकों में कहीं भी उनको भय नहीं सता सकता।

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